
-धनंजय सिंह चौहान
वैसे तो २ मई को पाँच राज्यों के सहित कुछ उपचुनावों के परिणाम आने हैं पर मैं इस लेख में चर्चा केवल मध्य प्रदेश के दमोह विधान सभा क्षेत्र के उपचुनाव को लेकर कर रहा हूँ, क्यूंकि इसकी परिस्तिथियां अन्य चुनाव से सर्वथा भिन्न हैं। इसकी प्रष्टभूमि पर ध्यान दें तो मध्य प्रदेश में आम चुनावों के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में अपूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी जो आपसी फूट के कारण अपना कार्यकाल पूर्ण नहीं कर सकी और ठीक कोरोना महामारी के देशव्यापी फैलाव की "घोषणा" के पूर्व अपने तीन पंचवर्षीय कार्यकाल पूर्ण कर चुकी भाजपा ने पुनः सरकार बना ली और तब से लम्बे समय तक सरकार चलाने और बनाये रखने के लिए प्रदेश की राजनीति में काफी कुछ हुआ जिसे जनता ने देखा , सुना और सहा। इस दौरान दोनों दलों के घोषित, अघोषित और स्वयंभू प्रवक्ताओं की अपने अपने दलों के पक्ष मैं दलीलों और दुसरे पक्ष पर कोरोना बढ़ाने या उसकी अनदेखी करने के आरोपों प्रत्यारोपो का दौर चलता रहा। कांग्रेस के जिन विधायकों के "हृदय परिवर्तन" के कारण सत्ता में बदलाव हुआ पहले वे बिना निर्वाचित हुए ही भाजपा सरकार में मंत्री बने फिर अपने अपने क्षेत्रो में भाजपा के उम्मीदवार "घोषित" हुए जो जीते उनका पद बरकरार रहना ही था जो न जीते वे भी जब तक रह सकते थे मंत्री बने रहे आदि आदि।
खैर इस दमोह उपचुनाव के पूर्व भाजपा को सदन में स्पष्ट बहुमत हासिल है और कांग्रेस को एक सशक्त विपक्षी दल का दर्जा और चुनाव का जो भी परिणाम हो वह प्रदेश में इन दोनों दलों की स्थिति बदलने वाला नहीं है साथ ही किसी तीसरी शक्ति का कोई अस्तित्व न तो प्रदेश में है और न इस क्षेत्र में।
उक्त प्रष्टभूमि से यह आसानी से समझा जा सकता है की इस चुनाव की तुलना अन्य राज्यों में हो रहे चुनावों से नहीं की जा सकती क्यूंकि न तो यहाँ किसी पार्टी के अस्तित्व का सवाल है न सरकार बनाने या बनाये रखने का प्रश्न है यहाँ तक कि इस एक विधानसभा क्षेत्र में भी अपनी पैठ बनाने का सवाल भी नहीं है। कांग्रेस इस क्षेत्र से पिछले आम चुनावो में जीत ही चुकी है और उसमें जीता हुआ व्यक्ति अब भाजपा का उम्मीदवार है अतः प्रभाव की दृष्टि से दोनों का पलड़ा लगभग बराबर है।
इस सबके बावजूद भी दोनों ही दलों ने केवल एक उपचुनाव जीतने के लिए देशहित, प्रदेशहित और जनहित को पूरी तरह दांव पर लगा दिया, जिस कोरोना महामारी से देश को बचाने के लिए अपने अपने प्रयासों, सुझावों का दावा किया जा रहा था उसको मज़ाक बना दिया। प्रदेश की आम जनता से जिन निर्देशों का पालन करने की परिपत्रों, विज्ञापनों द्वारा अपील की जा रही थी दमोह में चुनावी मंचों से शीर्ष नेतृत्व द्वारा उन्ही निर्देशों का हज़ार-लाख गुना उललंघन करने का आव्हान भी हुआ और किया भी गया।
यदि दोनों में से एक भी दल इन परिस्थितियों में जिसमें उसे ना कुछ खोने को था और नाही कुछ विशेष पाने का यदि यह संकल्प ले लेता कि वह अपने को किसी भी प्रकार के जमावड़े से दूर रखेगा उसके द्वारा न रैली होगी, न जनसभा, न समूह में प्रचार तो शायद जनता के बीच चुनाव की प्रष्ठभूमि में बनी उसकी छवि में काफी सुधार की संभावना थी। इसके बाद भी अनेक माध्यम और साधन थे जिनसे घर घर अपनी बात को आसानी से पहुंचाया जा सकता था। पर दुर्भाग्य से इतना सा काम करने का साहस भी दोनों दलों में से किसी ने नहीं दिखाया और अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओं को संक्रमित होने और आम जनता को गंभीर पीड़ा भोगने के साथ ही तड़प-तड़प कर मरने का निश्चित जोखिम उठा लिया जिसके परिणाम चुनाव प्रचार समाप्त होते ही आने लगे हैं। हालांकि राहुल गाँधी ने बंगाल के पांच चरणों के चुनाव प्रचार समाप्ति पर ऐसी घोषणा अवश्य की परन्तु तब तक काफी देर हो चुकी थी अतः उसका असर न्यूनतम ही रहा।
परिणाम स्वरूप अब तक दोनों दलों के लगभग एक सैकड़ा नेता न केवल संक्रमित हो चुके हैं बल्कि कांग्रेस की प्रदेश महिला अध्यक्ष का तो इसी कारण असमय निधन ही हो गया। ये हालत तो उनके हैं जो सुविधापूर्वक, साधनों सहित मंचों तक सीमित थे, पर आम जनता ने जो इस महामारी का प्रकोप झेला उसके कई भयावह दृश्य सामने हैं जो की केवल बानगी हैं सभी को दिखाया जाना संभव भी नहीं है। बिलकुल स्पष्ट है की इसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जिसका अनुमान लगाना कठिन हो सामान्य बुद्धि से ही इसे समझा जा सकता था और शासन-प्रशासन को समझ आ ही रहा होगा कि इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ेगी विशेषकर जब व्यवस्थाये और तैय्यारियाँ पूरी तरह अपर्याप्त थीं।
लेकिन वर्तमान में हर होने वाले चुनावों की एक-एक सीट को जीतने के लिए इतनी ज़ोर अजमाइस का दौर है कि कोई मर्यादा , आचार संहिता शेष नहीं बची है। एक समय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रकवि श्री शिवमंगल सिंह सुमन की पंक्तियां "क्या हार में, क्या जीत में " दोहराया करते थे जो अब बीते समय की बात है।
अंत में मुझे सूदर्शन जी की कहानी "हार की जीत" का वह दृष्टांत याद आता है जिसमें बाबा भारती के अद्भुत और परमप्रिय घोड़े को डाकू खड़ग सिंह द्वारा छल पूर्वक असहाय बनकर हथिया लिये जाने पर बाबा भारती कहते हैं कि अब ये घोड़ा तुम्हारा ही है मैं इसे भूल जाऊँगा पर इस घटना के बारे में तुम किसी को मत बताना, नहीं तो लोगों का भरोसा उठ जायेगा और आगे से कोई किसी असहाय पर दया नहीं करेंगा। ये शब्द डाकू के कानों में गूंजते रहे और वह इतना "विचलित" हो गया कि अंततः उसने बाबा को घोड़ा वापस कर दिया और इस तरह "हार की जीत" हुई।
वापस दमोह के उपचुनाव के परिणामों पर आते हैं तो जिस प्रकार अपने समर्थकों के साथ-साथ मतदाताओं के जीवन को दांव पर लगाया गया और लगभग काबू में आ चुकी एक ऐसी महामारी को पुनः फैलाने का काम किया गया जिसने चंद महीनों में चीन के वुहान से निकल कर पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया था बिना उस संदेश से "विचलित" हुए जो लोगों की कराह, वेदनापूर्ण मौत और उनके परिजनों के चीत्कार से इन नेताओं , दलों और लोकतंत्र में वर्तमान राजनीति के कुत्सित स्वरूप के प्रति देर सवेर जनता में जाना ही था। अतः अब स्पष्ट है कि इस चुनाव के नतीजे कुछ भी क्यों न हो इसमें -
हारे की तो हार है जीते की भी हार।