लखनऊ में गुरुवार को कांग्रेस के दलित सम्मेलन को पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की दलितों तक पहुंचने की एक और कोशिश माना जा रहा है.

लेकिन अगर राहुल गांधी सच में दलितों के दिल तक पहुंचना चाहते हैं तो उन्हें अपनी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से काफ़ी कुछ सीखना होगा.

हालांकि राहुल गांधी अक्सर अपने भाषणों में कमज़ोर तबक़े की बात करते हुए दलितों का उल्लेख करते हैं. उनका एक दलित के घर रात बिताना भी राष्ट्रीय मीडिया की सुर्ख़ी बना.

बावजूद इसके शायद अभी ये नहीं कहा जा सकता है कि वो दलितों को पूरी तरह समझते हैं या फिर दलित उनकी बातों को समझ पाए हैं.

दलितों तक पहुंचने के लिए उन्हें इतिहास में जाना होगा और उस दौर में जाना होगा जब कांग्रेस पार्टी की पहचान इंदिरा गांधी ही थीं.

असल में 1978 में तो पार्टी को कांग्रेस 'आई' कहा गया जिसमें 'आई' का मतलब इंदिरा था.

इंदिरा गांधी सिर्फ़ एक राजनेता भर नहीं थीं बल्कि एक राजनीतिक कलाकार थीं. वो जानती थीं कि दलित कौन हैं, उनकी ज़रूरतें क्या हैं और चुनाव के दिन उनका वोट देना कितना अहम है.

आम लोगों के लिए दलित भारत की आबादी का 16.66 प्रतिशत हिस्सा हैं. लेकिन पूर्वोत्तर के राज्यों, झारखंड, छत्तीसगढ़ और गुजरात को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में दलितों की आबादी लगभग 20 प्रतिशत है.

2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपने दम पर 282 सीटें जीतीं, जबकि उसे सिर्फ़ 31 प्रतिशत मिले थे.

अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह दलित भी आम तौर एक साझा रास्ते पर आगे बढ़ते हैं और किसी भी एक पार्टी को बड़े पैमाने पर वोट देते हैं.

बीस प्रतिशत वोटों के साथ दलित किसी भी चुनावी हार-जीत का फैसला करने की ताक़त रखते हैं.

आज़ादी के बाद दलित बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट देते रहे. फिर 1960 और 70 के दशक में समाजवादियों का उभार हुआ, कट्टर कम्युनिस्ट विचारधारा भी मजबूत हुई.

ऐसे में, इंदिरा ने हालात को भांपते हुए तेज़ी से फ़ैसला लिया.

उन्हें पहले ही दिख गया था कि दलितों में एक मध्यवर्ग आकार ले रहा है और दलितों की आकांक्षाएं बढ़ेंगी.

उन्होंने आपातकाल के दौरान अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उन दलितों का नया एजेंडा लिखा जो आज़ादी के बाद पैदा हुए.

एक ही झटके में उन्होंने दलितों को 22.5 प्रतिशत एलपीजी और पेट्रोलियम पंपों की डीलरशिप दे दी. भारत के इतिहास में दलितों को कारोबारी दुनिया में लाने का सरकार की तरफ़ से ये पहला क़दम था. आज एलपीजी और पेट्रोलियम स्टेशन के मालिकों के तौर पर दलित हर साल अरबों रुपए का कारोबार कर रहे हैं.

शिक्षा बेड़ियों से मुक्त करती है, मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई लोगों को नई ऊंचाइयों पर ले जाती है. इमरजेंसी के दिनों में देखा गया कि आईआईटी और एम्स समेत सभी मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में दलितों/आदिवासियों के लिए निर्धारित सीटों को भरा गया.

परीक्षा में पास होने लायक नंबर लाने वाले दलितों को भी आईआईटी में दाखिला दिया गया. केंद्रीय लोक सेवा आयोग और राज्य स्तरीय आयोगों ने फिर ये नहीं लिखा कि ‘योग्य अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग नहीं मिले’. सारी सीटें भरी गईं.

इमरजेंसी के दौर में उत्तर प्रदेश में वो हुआ जिसकी कल्पना करना भी अब मुश्किल है.

हेमवती नंदन बहुगुणा के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य पुलिस से ये सुनिश्चित करने को कहा कि 10 प्रतिशत पुलिस थानों के प्रमुख दलित पुलिस अधिकारी होने चाहिए.

उत्तर प्रदेश पुलिस ने तुरत अपना उत्तर भेजा- ‘हमारे पासे इतने दलित सब इंस्पेक्टर नहीं हैं.’ मुख्यमंत्री बहुगुणा ने आदेश दिया, ‘सब इंस्पेक्टर की भर्तियों में 30 प्रतिशत पद दलितों के लिए आरक्षित कर दिए जाएं और ऐसा तब तक हो जब तक राज्य पुलिस बल में दलितों को 20 प्रतिशत हिस्सेदारी न मिल जाए.’

ऐसा ही कुछ पूरे भारत में हुआ. 1980 के चुनावों में इंदिरा की जीत में दलितों का बड़ा योगदान था.

आज जो दलितों का मध्य वर्ग है, उसमें इमरजेंसी के दौरान किए गए कामों का बहुत योगदान है.

इंदिरा के बाद कांग्रेस दलितों को मूड को भांपने में नाकाम रही.

मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री के तौर पर 'भोपाल डॉक्यूमेंट' के ज़रिए दलितों तक पहुंचने का प्रयास किया और 'दलित करोड़पति' का नारा दिया लेकिन कांग्रेस के सत्ता प्रतिष्ठान ने उनकी पहल पर कोई ध्यान नहीं दिया.

ये अच्छी बात है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी दलितों तक पहुंचने की बराबर कोशिश कर रहे हैं. वो न सिर्फ़ दलितों के घर जा रहे हैं, बल्कि दलित युवाओं के सम्मेलन भी कर रहे हैं.

लेकिन बात ये है कि वो दलितों को किस रूप में देखना चाहते है. वो उन्हें मनरेगा या फूड बिल के दायरे में ही देख रहे हैं या फिर दलितों को दलाल स्ट्रीट पर चलते देखना चाहते हैं.

ये बात याद करनी होगी कि लोग उस विचार की तरफ खिंचते रहे हैं जो उनकी तात्कालिक ज़रूरतों को नहीं, बल्कि आकांक्षाओं को पूरा करे.

पिछले आम चुनाव में राहुल गांधी लोगों की ज़रूरतों की तरफ़ ध्यान दिलाने में व्यस्त थे जबकि नरेंद्र मोदी लोगों की आकांक्षओं की बात कर रहे थे.

दलितों के दिल तक पहुंचने के लिए कांग्रेस को शायद इंदिरा वाली कांग्रेस ही बनना होगा.