जगजीवनदास ने शिष्यों को ‘सखि’ का संबोधन ठीक ही दिया है-‘सुनु सुनु सखि री. चरनकमल तें लागि रहु री.’ सखा कहते, सखि क्यों कहा?

 मित्र कहते, सहेली क्यों कहा? क्योंकि धर्म की खोज में प्रत्येक व्यक्ति को स्त्रैण होना पड़ता है. धर्म की खोज में पुरुष की गति ही नहीं है. जब मैं कहता हूं पुरुष की गति नहीं है, तो यह मतलब नहीं है कि पुरुष वहां नहीं पहुंचते. जगजीवनदास खुद भी पुरुष थे. पुरुष भी वहां पहुंचते हैं. लेकिन वहां पहुंचते जिस ढंग से हैं, उसे स्त्रैण ही कहा जा सकता है. पुरुष से अर्थ है- अहंकार, अस्मिता, मैं-भाव. स्त्री से अर्थ है- विनम्रता, झुकने की क्षमता, निर्अहंकार. पुरुष से अर्थ है-आक्रमण, विजय यात्रा, अभियान. स्त्री से अर्थ है-प्रतीक्षा, प्रार्थना, धैर्य. पुरुष सत्य की खोज में निकलता है, स्त्री सत्य आने की प्रतीक्षा करती है. स्त्री प्रेम का निवेदन नहीं करती, चुपचाप प्रतीक्षा करती है.

परमात्मा की खोज में जो निकले हैं, वे अगर पुरुष की अकड़ से चलेंगे तो नहीं पहुंचेंगे. परमात्मा पर आक्रमण नहीं किया जा सकता और न परमात्मा को जीता जा सकता है. परमात्मा के समक्ष तो हारने में जीत है. वहां जो झुके, उठा लिए गए. जो गिरे, शिखर पर चढ़ गए. कहावत सुनी है कि उसकी कृपा हो जाए तो लंगड़े भी पर्वत चढ़ जाते हैं. जिन्हें अकड़ है अपने पैरों की और अपने बल का भरोसा है, वे घाटियों में ही भटकते रह जाते हैं. अंधेरे की घटियां अनंत हैं. जन्मों-जन्मों तक भटक सकते हो. ईश्वर को पाना हो तो ईश्वर पुरुष है, प्रतीक्षा करना सीखना होगा. भक्त को स्त्री के गर्भ जैसा होना चाहिए- अपने भीतर समाविष्ट करने को उत्सुक, प्रार्थनापूर्ण. भीतर नए जीवन को उतारने के लिए द्वार खुले हैं.

लेकिन जीवन को खोजने जाएं तो जाएं कहां? परमात्मा की तलाश करें तो कहां करें, किस दिशा में करें? जाननेवाले कहते हैं, सब जगह है, न जाननेवाले कहते हैं कहां है, दिखाओ. जाननेवाले कहते हैं, रत्ती-रत्ती में, कण-कण में और न जाननेवाले कहते हैं कि सब कुछ है, परमात्मा नहीं है. भक्त दोनों के बीच खड़ा है. न उसे पता है कि सब जगह है और न ऐसे अहंकार से भरा है कि कह सके कि कहीं भी नहीं है. तो भक्त क्या करे?

पुकार उसके प्राणों में ऐसी गहरी उतर जाए कि उसका रोआं-रोआं पुकारे, उसकी श्वास-श्वास पुकारे और अगर कहीं परमात्मा है तो जरूर आएगा. और जितनी गहरी पुकार होगी, उतनी शीघ्रता से सुनी जाएगी. कोई पूरे प्राण से पुकार सके तो इसी क्षण घटना घट सकती है. इसलिए जगजीवनदास ‘सखा’ शब्द का उपयोग नहीं करते. कहते हैं, ‘सुनु सुनु सखि री, चरनकमल तें लागि रहु री.’