नोटबंदी को लेकर नरेंद्र मोदी के दावों और जमीनी हकीकत का फर्क धीरे-धीरे ही सही पर आधिकारिक तौर पर सामने आता जा रहा है। अब यह बात पूरी तरह साफ हो गई है कि नोटबंदी पौने दो महीने तक देश को जमूरा बनाने के उपक्रम से ज्यादा कुछ नहीं था। ना इससे भ्रष्टाचार रुका। ना आतंकवाद। ना कालाधन वापस आया। जो बाहर आया वह लोगों का वैध पैसा था। घर में गाढ़े वक्त के लिए महिलाओं द्वारा जोड़ी गई रकम थी। वह यह रकम अपने पतियों से छुपाकर रखती थीं। यदि कालाधन होता तो सरकार बढ़ चढकऱ बताती। रिजर्व बैंक की माने तो केवल 8 हजार 900 करोड़ रुपए ही वापस नहीं लौटे हैं, जबकि सरकार का नोटबंदी लागू करते वक्त सोच था कि बंद किए गए नोटों में से ढाई लाख करोड़ रुपए वापस नहीं लौटेंगे। यानि सरकार के अनुमान के मुताबिक मात्र पौने चार फीसदी पैसा ही नहीं लौट सका। सच तो यह है कि यदि सरकार 31 दिसंबर 16 के बाद  31मार्च 17  तक अपने पैसा जमा करने के अपने वादे से नहीं मुकरती तो यह धन भी वापस आ जाता। यदि सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में चल रही सुनवाई के बाद बची रकम लौटाने के आदेश कर देगी तो बाकी बचा पैसा भी बैंकों में आ जाएगा। यह इसलिए आज भी ऐसे लाखों लोग हैं जिनके घर में महिलाओं द्वारा छुपाकर रखा गया पैसा 31 दिसंबर के बाद मिला। महिलाएं अक्सर पैसा रखकर भूल जाती हैं। सच पूछा जाए तो नोटबंदी के जरिए कालेधन को पकडऩे का उपक्रम वैसा ही था जैसे कि ऊंट पर बैठकर बकरियां चराना। कालेधन और बेनामी संपत्ति को लेकर नोटबंदी को लेकर जो कदम नोटबंदी से हुई बदनामी के बाद उठाए, दरअसल वह ज्यादा कामयाब साबित होंगे। क्योंकि सरकार को सही दिशा नोटबंदी के बाद हुई आलोचना और सुझावों के बाद मिली। मोदी लोगों से भ्रष्टाचार की रकम के खुलासे की सूचना  ईमेल के जरिए प्रधानमंत्री कार्यालय को देने की व्यवस्था पहले ही कर देते तो नोटबंदी जैसे बेतुके कदम उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। रिजर्व बैंक की रपट ने नोटबंदी की नाकामी को लेकर अभी भी पूरे सच को उजागर नहीं किया है। यह आधा अधूरा सच है। रिजर्व बैंक ने नए नोटों की छपाई का खर्च 7 हजार 965 करोड़ बताया है। लेकिन नोटबंदी की प्रक्रिया के दौरान हुए कुल खर्च का ब्यौरा अभी भी उजागर होना बाकी है। देश भर के टोल नाकों को दी गई क्षतिपूर्ति का खुलासा नहीं है। देश की विकास दर में आई कमी से हुए नुकसान का जिक्र नहीं है। लोगों के काम धंधे चौपट होने और निजी क्षेत्रों में नौकरियों खोने से फैल बेरोजगारी का जिक्र नहीं है। ज्यादा रकम होने से बैंकों ने लोगों के बचत खातों में ब्याज दर भी घटा दी है। नोटबंदी से नरेंद्र मोदी देश की अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं दिला सके, लेकिन नरेंद्र मोदी ने इसका राजनीतिक फायदा जरूर उठाया। उप्र के चुनावी नतीजों में बाकी वजहों के साथ नोटबंदी भी एक बड़ा मुद्दा था। दरअसल मोदी भारतीय जनमानस के एक बड़े वर्ग की उस सोच को पकडऩे में कामयाब रहे हैं, जो दूसरों की तकलीफों से खुद को सुखी महसूस करती है, भले ही उसके दुख दर्द उससे दूर नहीं हों। एक लतीफे के जरिए इसको समझा जा सकता है। एक भारतीय दक्षिण अफ्रीका के जंगल में घूम रहा था। अचानक उसने देखा कि जंगल में एक अश्वेत मूल का अफ्रीकी जंग में ओम नम: शिवाय का जाप कर रहा था। भारतीय चौंका। वह जिज्ञासावश थोड़ी दूर से ही सारा नजारा देखने लगा। थोड़ी देर में वहां भगवान शंकर प्रकट हुए। उन्होंने वरदान मांगने को कहा। अफ्रीकी ने कहा बाकी सब तो ठीक है पर मेरे रंग को लेकर लोग मजाक उड़ाते हैं। इसलिए उसे वह गोरा कर दें। भगवान शिव ने कहा तथास्तु। नीग्रों अपना गोर रंग देखकर चहक उठा। वह जंगल में नाचने लगा। यह सब हिंदुस्तानी सैलानी से देखा नहीं गया। लिहाजा उसने भी तप शुरू कर दिया। भगवान शिव प्रकट हुए और पूछा ऐसी कौन सी समस्या खड़ी हो गई जो तू सैप सपाटा छोडकऱ मुझे जपने लगा? फिर भी अब या हूं तो एक वरदान तू भी मांग ले। हिंदुस्तानी ने कहा कि हे भगवान आपका दिया सब कुछ है, बस मेरी यही इच्छा है कि आपके वरदान से गोरा होकर जो नीग्रो नाच-नाच कर खुशियां मना रहा है उसे फिर से काला बना दो। लतीफा यहीं तक है पर मोदीजी इसी मर्म को पकडकऱ अपनी राजनीति के रथ को देश भर में दौड़ा रहे हैं और विपक्षी दल मोदी की कामयाबी पर अपना सिर धुनते फिर रहे हैं।